Tuesday, July 8, 2025

"Silent Companions"


 “खामोशी की ज़ुबान”

कनाडा की दोपहरें कुछ अलग होती हैं।

नीली खुली छतें, शांत गलियाँ, और सर्द हवा में लिपटी कुछ अनकही सी बातें।

इन्हीं दोपहरों में मेरा प्यारा साथी — कुक्की ( मेरा बिल्ला )— अक्सर खिड़की पर बैठ जाता है।


उसकी आँखें बाहर की दुनिया में खोई होती हैं।

सड़क पर भागते कुत्तों, पेड़ पर बैठी गिलहरियों और दूर जाती बसों को निहारते हुए वो कुछ सोचता है — गहराई से, चुपचाप।


और फिर एक दिन, मैंने देखा — सामने की बालकनी में बाबा जी भी बैठे थे।

उन्हीं की तरह — खामोश, अपनी चाय के साथ, और अपनी ही सोचों में गुम।


दो अलग-अलग प्राणी।

एक बिल्ली, एक इंसान।

पर दोनों की आँखों में एक जैसी तन्हाई थी।

जैसे दोनों की दुनिया एक ही दिशा में खुलती हो — खिड़की के पार, मगर भीतर बंद।


✨ फिर हुआ कुछ ख़ास...

उस दिन खिड़की से मैंने जो देखा, वो सिर्फ नज़ारा नहीं था —

वो एक संवाद था — बिना शब्दों के, लेकिन गहरे।


मानो कुक्की और बाबा जी के बीच एक चुपचाप बातचीत शुरू हो गई हो।


🧓 बाबा जी की निगाहों ने कहा:

"ओए तू भी रोज़ आ बैठता है खिड़की पर।

जैसे तुझमें भी कोई बेचैनी है... जैसे कोई तुझे भी याद करता है।"


🐱 कुक्की की नज़रों ने जवाब दिया:

"हाँ बाबा, मैं भी किसी को ढूंढता हूँ।

कोई जिससे मैं पंजा भिड़ा सकूं, कोई जो मेरी ज़ुबान समझे।"


🧓 बाबा जी की साँसों में दर्द था:

"हमने बच्चों को बड़ा किया,

पर अब हफ्तों हो जाते हैं — आवाज़ तक नहीं आती।

बस बालकनी में बैठकर उम्मीद कर लेते हैं — शायद आज कोई पुकार ले।"


🐱 कुक्की की आँखों में वही खालीपन तैर रहा था:

"मैं भी बस बाहर देखता हूँ...

हर परिंदा उड़ता है, मैं बस देखता हूँ।

सब कुछ है, पर कोई ‘मेरे जैसा’ नहीं है।"


ये बात चौंकाने वाली थी —

कि एक जानवर और एक बुज़ुर्ग, जिनकी ज़िंदगियाँ बिल्कुल अलग हैं,

वो भी एक ही तकलीफ़ से जूझ रहे हैं — अकेलापन।


शायद इसलिए, उस दिन मैंने देखा —

कुक्की थोड़ी देर के लिए खिड़की से हट कर बाबा की ओर मुड़ा।

और बाबा जी ने चाय का कप रखते हुए उसी ओर देखा।

दोनों की निगाहें मिलीं… और वो चुप्पी कुछ कह गई।


🌿 कुछ रिश्ते जन्म से नहीं बनते, वो तन्हाई से बनते हैं।

कभी-कभी हमें शब्दों की ज़रूरत नहीं होती,

बस किसी के पास बैठे रहने भर से भी दिल भर आता है।


कुक्की और बाबा, दोनों को कोई चाहिए था —

जो सुन सके, समझ सके, बिना कुछ कहे बस साथ दे सके।


🕊️ अंत में बस एक बात समझ आई...

चाहे वो एक बिल्ली हो या एक बुज़ुर्ग इंसान,

हर दिल को साथी चाहिए होता है।

कभी खिड़की के इस पार,

तो कभी बालकनी के उस पार।


क्योंकि तन्हाई का कोई धर्म, उम्र या जात नहीं होती।

बस एक पुकार होती है — साथ की।"


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