Monday, July 7, 2025

"अपने ही जब पराए हो जाएं…"



देश छोड़ा था सपनों के लिए…

पर सबसे पहला ज़ख़्म अपनों ने ही दिया…"

एक महीना हो गया है मुझे कनाडा आए हुए।

नई धरती, नई हवा… लेकिन अब तक रास नहीं आई।

हर सुबह जब बर्फ की चुभन चेहरे पर लगती है,

तो माँ की रसोई की वो गरम रोटियाँ याद आ जाती हैं।


इन्हीं दिनों किसी ने बताया था —

ब्रैम्पटन में एक होटल है, देसी पति-पत्नी चलाते हैं।

“अपने लोग हैं, शायद मदद कर दें…”

मैं चला गया उम्मीद लेकर।


पहले दिन सब कुछ अच्छा लगा।

“बेटा, तुम तो अपने जैसे हो,” — यही कहा उन्होंने।

काम पर रख लिया, और मैं भी झुक कर राज़ी हो गया।

"दो वक्त की रोटी, और महीने की मेहनत का पैसा काफी है", यही सोचा था।


पर धीरे-धीरे सपनों के पीछे की सच्चाई खुलने लगी।


शुरू हुआ 15-15 घंटे का काम,

बर्तन धोना, सफाई करना, किचन में जलना…

कभी-कभी खाना भी नहीं मिलता था।

तनख्वाह माँगी तो धमकी मिली —

“तेरे डॉक्यूमेंट्स हमारे पास हैं… ज़्यादा ज़ुबान चलाई तो इमीग्रेशन को टिप दे देंगे, डिपोर्ट हो जाएगा।”


डर गया मैं।

सिर्फ मैं नहीं, वहाँ और भी लड़के थे।

सब नए, सब सहमे हुए, सब चुप…

और चुप्पी में डूबे हुए सवाल —

“क्या अपने लोग ही इतने बेरहम हो सकते हैं?”


हर रात खुद से एक ही सवाल करता —

क्या यही है वो कनाडा, जिसकी इतनी तारीफ़ सुनी थी?

या ये बस वही इंसानियत की तस्वीर है, जो अपने चेहरे पर नकाब लगाए घूम रही है?


एक दिन मैंने माँ को चिट्ठी लिखी:


"माँ, यहाँ की हवा ठंडी है, पर लोगों के दिल उससे भी ज़्यादा ठंडे हैं।

यहाँ अपने भी पराए हो गए हैं।

तू कहती थी, मेहनत से सब कुछ मिलेगा…

पर माँ, यहाँ मेहनत को डर से तौलते हैं।”


फिर किसी ने NGO का नाम बताया,

किसी ने हिम्मत की, और आवाज़ उठाई।

अब मैं किसी और जगह काम करता हूं,

मेहनत उतनी ही है… पर अब उसमें अपमान नहीं।


पर एक बात आज भी भीतर गूंजती है…

“हम दूसरों के देश में इज़्ज़त कमाने आते हैं…

पर जब अपने ही उस इज़्ज़त को रौंद देते हैं —

तो दर्द सिर्फ दिल में नहीं, आत्मा में भी उतर जाता है।

"क्या आप मानते हैं कि विदेश में इंसान को सबसे ज़्यादा चोट अपनों से ही मिलती है?"

 "आपके कमेंट किसी और के लिए उम्मीद बन सकते हैं। खुलकर लिखिए..."


🤝 "अगर आपको यह कहानी सच्ची लगी, तो किसी ऐसे दोस्त को टैग कीजिए जो अभी कनाडा में संघर्ष कर रहा है।"


🔄 "शेयर कीजिए, ताकि हम जैसे और लोग जागरूक हों। अपनों के दर्द को अनसुना मत होने दीजिए।"

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