Saturday, July 5, 2025

सम्मान और ज़रूरत की सीट

 

“मुझे काम नहीं चाहिए, मुझे ज़रूरी महसूस होना चाहिए”


मैं श्याम बाबू हूँ। उम्र 70 साल।
ज़िंदगी के ज़्यादातर साल तारों को जोड़ते, स्विच बोर्ड सुधारते और दुनिया को रोशन करते गुज़ारे हैं। पटना के बिजली विभाग में नौकरी थी। सुबह की साइकिल, दोपहर की फाइलें और शाम की चाय – यही मेरी दुनिया थी।

जब रिटायर हुआ, तो बेटा बोला – “पापा, अब आराम करिए। आइए न हमारे पास कनाडा। अब हम साथ रहेंगे।”
दिल खुश हो गया। पोते की किलकारियाँ, बहू की मुस्कान और बेटे का साथ – यही तो चाहा था।

कनाडा आया। सलीके से सजा हुआ घर। हर चीज़ ऑटोमैटिक। चाय तक मशीन से निकलती है।
शुरू के कुछ हफ्ते तो लगे जैसे सपना देख रहा हूँ। कोई चिंता नहीं। ठंडी हवा, बढ़िया खाना और दिनभर आराम।

लेकिन फिर धीरे-धीरे एक अजीब-सी खामोशी भीतर घर करने लगी।
सुबह की नींद अब जल्दी खुलती है, पर उठकर करने को कुछ नहीं।
कभी बालकनी में जाकर उस पेड़ को देखता हूँ – जिस पर पत्ते गिरते हैं, उड़ते हैं, फिर भी पेड़ चुपचाप खड़ा रहता है।

एक दिन देखा, वॉशिंग मशीन पानी नहीं खींच रही।
मैं उत्साहित हो गया – चलो कुछ करने को है।
बेटे से कहा – “बोलो तो देख लूं?”
उससे पहले बहू बोल पड़ी – “नहीं पापा जी, सर्विस वाले को कॉल कर दिया है। आप क्यों परेशान होंगे?”

मैं मुस्कराया। बाहर से।

अंदर से?

वो जो एक पल होता है जब कोई कहता है – “आपकी ज़रूरत नहीं है”…
वो शब्द नहीं होते, एक पहचान को मिटा देने वाला लम्हा होता है।

मैंने कुछ नहीं कहा, बस उस दिन से अपनी जरूरत का हिसाब लगाना बंद कर दिया।
न किसी बल्ब की चिंता करता, न किसी नल की।
अब सब कुछ किसी ऐप से हो जाता है,
फिर पापा से क्यों कहा जाए?

शाम को टीवी पर कोई अंग्रेज़ी शो चलता है, समझ नहीं आता।
बेटा कहता है – “पापा, बस रिलैक्स करिए। Chill, okay?”

पर मैं उसे कैसे समझाऊँ…
"चिल" करने के लिए इंसान को सबसे पहले थका होना पड़ता है।
और मैं तो अब किसी काम में हूँ ही नहीं…

अब तो ये लगता है जैसे
मैं हूँ, लेकिन ज़रूरी नहीं हूँ।

एक दिन बेटा परेशान होकर कहता है –
“पापा, मेरी कार की हेडलाइट कुछ गड़बड़ कर रही है…”

मैंने बिना कुछ कहे उसे देखा।
वो पहली बार किसी वजह से मेरी तरफ़ मुड़ा था।
मेरी उंगलियाँ फिर से तारों के पास पहुँचीं,
और मेरी रगों में कुछ दौड़ने लगा।

मैंने कुछ नहीं कहा।
पर मेरे भीतर की आवाज़ चीख़कर बोली –
"बस यही चाहिए था… सिर्फ़ इतना, कि तुम कहो – पापा, ज़रा देख लेंगे क्या?"

मुझे अब भी काम की ज़रूरत नहीं है।
पर मुझे आज भी ज़रूरी महसूस होने की ज़रूरत है।
क्योंकि इंसान रिटायरमेंट से नहीं थकता,
वो तब थकता है जब उसके बिना भी सब कुछ चलता रहे…
और कोई उसे याद भी ना करे।

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