"डॉलर के पीछे भागती ज़िंदगी"
कहानी:
गुरप्रीत का वीज़ा लगते ही पूरे मोहल्ले में मिठाई बंटी थी। पंजाब के एक छोटे से गांव से निकलकर जब उसने फेसबुक पर पहली तस्वीर टोरंटो एयरपोर्ट के बाहर खिंचवाई, तो कमेंट्स की बाढ़ आ गई – “बधाई हो वीर जी!”, “कनाडा पहुंच गए, अब तो सेट हो गए।”
सेट होना... उस शब्द का असली मतलब गुरप्रीत को अगले ही महीने समझ आया।
एयरपोर्ट से जिस दोस्त ने उसे उठाया था, उसी के बेसमेंट में रहना पड़ा – बिना खिड़की वाले कमरे में, जहां सूरज की किरणें भी वीज़ा लेकर आती हों, ऐसा लगता था।
पहले कुछ दिन ठीक लगे – नया देश, नई सड़कें, अंग्रेज़ी बोलते लोग, कनाडा की ठंडी हवा। लेकिन बहुत जल्दी गुरप्रीत को समझ आ गया – यहां हवा भी मुफ़्त नहीं बहती।
सुबह 5 बजे उठकर टिम हॉर्टन्स में शिफ्ट, फिर दोपहर में डिलीवरी का काम, और फिर रात को कोई warehouse में boxes उठाना। हर दिन ऐसा बीतता मानो घड़ी की सुई से रेस लगी हो।
घर में फोन करता, मां कहती – "बेटा खाना टाइम पर खा लिया कर।"
और वो हँस के टाल देता – "हां मां, सब बढ़िया है।"
पर वो ‘बढ़िया’ झूठ था।
तीन साल बाद जब उसने अपने माता-पिता को स्पॉन्सर करके कनाडा बुलाया, तो लगा कि अब सुकून मिलेगा। मगर सच्चाई इससे उलट निकली।
मां-पापा दिनभर घर में अकेले रहते। गुरप्रीत और उसकी पत्नी, दोनों दिन-रात काम में लगे रहते। एक दिन मां ने कहा –
"बेटा, यहां की खिड़कियों से बाहर झांकूं तो सब शांत दिखता है... पर अंदर बहुत शोर है। तुम्हारे बिना घर, घर नहीं लगता।"
उस दिन गुरप्रीत पहली बार अपने ही कमाए डॉलर को ताकता रह गया –
"क्या इस एक कागज़ के लिए मैंने इतना कुछ खो दिया?"
अब भी फेसबुक पर गुरप्रीत की तस्वीरें आती हैं – SUV के सामने खड़े होकर, वीकेंड BBQ करते हुए, और snowfall के बीच हंसते हुए।
पर कैमरे के उस पार एक थका हुआ चेहरा होता है,
जो पूछता है –
"क्या मैं अब भी वहीं हूं, जहां से चला था?"
अंत में:
कनाडा आना सपना हो सकता है, लेकिन यहां टिकना एक तपस्या है।
हर तस्वीर के पीछे एक अधूरी नींद, अपनों से दूरी, और आत्मसमर्पण की कहानी होती है
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